वक्त क्या है?
जो भी हो....
बस, गुजर जाने के लिए है।
जीवन तो वर्तमान की लयता है,
ये नव वर्ष?!
बस, कलेण्डर/पंचांग बदल जाना है।
वक्त क्या है?
जो भी हो....
बस, गुजर जाने के लिए है।
जीवन तो वर्तमान की लयता है,
ये नव वर्ष?!
बस, कलेण्डर/पंचांग बदल जाना है।
देश का वातावरण ऐसा हो कि कोई गुंडा भी मनमानी न कर सके::महात्मा गांधी।
......................................#अशोकबिन्दु
शांति, पूर्णता, प्रेरणा, उत्साह में ही मानव की आंतरिक शक्तियां जागती हैं। किसी पर दोष मड़ते रहने, बहिष्कार करने से समाज का भला नहीं होता।वह भविष्य में समाज के विखराव का कारण ही बनता है। सभी में अच्छाइयां व बुराइयां होती हैं।समाज व मनुष्यता के लिए वही इंसान बेहतर होता है जो इंसान की अच्छाइयों को उजागर करे, उन्हें विकसित करने का अबसर दे।सुधार या शिक्षा किसी पर थोपना नहीं है वरन उसकी प्रतिभाओं को बाहर करना है।पशुमानव को मानव, मानव को देव मानव बनाना है। वैदिक काल में शिक्षा की शुरुआत 'अपनी पहचान'- के विचार व भाव ग्रहण करने के साथ होती थी कि हम व जगत के तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। इस पूर्णता के आधार पर ही जीवन में सबकुछ करना पूर्णता की ओर जाना है।यही पुरुषार्थ है। जहां सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की स्थिति पैदा होती है। जहां पर करुणा व अहिंसा ही शास्त्र व शस्त्र होता है। बसुधैव कुटुम्बकम की दशा है।
इतिहास युद्धों से भरा है।उसने समाधान नहीं दिया है।वरन भविष्य में अन्य युद्धों की शुरुआत दी है।किसी ने कहा है कि दो युद्धों के बीच की शुरुआत युद्ध की तैयारी होती है। अंगुलिमान को बुद्ध ही अंगुलिमान को आगामी अपराध करने से बचा सकता है।बुद्ध उसे व उस जैसे अनेक को अपने साथ लेकर उसे अपराध न करने का अबसर देते हैं।बातावरण, सहकारिता, संघ, आश्रम पद्धति, गुरुद्वारा पद्धति जीवन में अति सहायक है। महात्मा गांधी जब कहते हैं कि वातावरण ऐसा हो कि कोई गुंडा भी मन मानी न कर सके तो इसका मतलब क्या है?
#अशोकबिन्दु
दर्द भी परेशान है-कहाँ कहाँ से उठूं मैं?
ये तन ये वतन का हाल ही कुछ ऐसा है।।
पूरे ब्रह्मांड व जगत में कोई समस्या नहीं है।समस्या स्वयं मानव समाज में है।
होश संभालते ही मानव समाज उपद्रव से भरा लगने लगा। ऐसे में आर्य समाज, शांतिकुंज,जयगुरुदेव संस्था, जय निरंकारी आदि ने हमारी स्थूल से परे सूक्ष्म व कारण जगत को संवारने का प्रयत्न किया।
प्रकृति, पुस्तकें, बच्चे जीवन के करीब लगे। इसके अलावा मानव समाज में कब्रस्तान, श्मशान, जिस घर में कोई बच्चा पैदा हुआ वह घर, जिस घर में किसी की मृत्यु वक्त आदि में हमें सूक्ष्म जगत का अहसास हुआ है। जीवन सिर्फ हमारे व अन्य के हाड़ मास शरीर और उसके व्यवहारों तक सीमित नहीं है।वह जीवन का हजारवां हिस्सा से भी कम है।और फिर हम उसे भी जाति, मजहब, राजनीति, लोभ, लालच आदि में उलझा कर रह जाते हैं। 98 प्रतिशत से ऊपर जनता रोटी, कपड़ा,मकान आदि के माध्यम से सिर्फ इस हजारवां हिस्सा को भी पूर्ण रूप से नहीं जी पाते। हम वर्तमान से हजार गुना पावर में तब प्रवेश करते हैं जब हम सहस्रधार चक्र पर पहुंचते हैं और हम रहस्यमयी दुनिया में प्रवेश करते हैं। अनन्त धाराओं के अहसास से हम हृदय चक्र/अनाहत चक्र को पार करने के साथ ही पाने लगते हैं। लेकिन ये सब मानव व मानव समाज की नजर नहीं दिखता।
हमारा व जगत का स्थूल स्तर के बाद सूक्ष्म व कारण स्तर की पहुंच खामोशी, धैर्य,सहनशीलता, बर्दाश्त करने ,अंतर दशा को अंदर ही अंदर मनन में रखना, वर्तमान को प्रतिक्रिया हीन हो झेलते हुए अपने कर्तव्यों में जीना आदि आवश्यक है। आत्म साक्षात्कार व परम्आत्म साक्षात्कार की शर्तें समाजिकता की शर्तों से उलट हैं। मानवता से ही मानव समाज बेहतर हो सकता है।बसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व आदि की दशा आध्यत्म से ही सम्भव है।जातिवाद व मजहबीकरण से नहीं।
वर्तमान में मानव की धर्म के प्रति जो धारणा है,वह मानवता को विकसित नहीं कर सकती।वह तो मानव मानव में दूरियां बढ़ाने में हैं।
हम प्रकृति अंश हैं व ब्रह्म अंश।
हमारा हाड़ मास शरीर प्रकृति है,पांच तत्वों से बना है। हमारी आत्मा...!? आत्मा के सम्बंध में हम कहना चाहेंगे कि परम्+आत्मा। जिसके लिए हमें जातियां, मजहब आदि नहीं चाहिए।धर्म स्थल आदि नहीं चाहिए। हमारे हाड़ मास शरीर को रोटी कपड़ा, मकान,चिकित्सालय, स्कूल आदि चाहिए और आत्मा को ?! आत्मा को क्या चाहिए?!ध्यान, प्राणाहुति, प्राण प्रतिष्ठा, आत्मियता, आत्म सम्मान, आत्मबल, आत्मनिर्भरता आदि के बिना आत्मा के अनन्त प्रवृत्तियों की ओर कैसे? उसके अहसास में कैसे?मन का राजा कैसे?
#अशोकबिन्दु
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